
“कहीं इसमें इसका कोई निजी स्वार्थ तो नहीं?!”
विरले ही पुरुष निस्वार्थ भाव से आदि काल से सनातन के मूल संस्कार और विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम को जीवंत करने में लगे हुए हैं। हमारा वसुधैव कुटुम्बकम पर आधारित जीवनदर्शन अभी जीवित तो है पर भौगोलिक स्तर भारतवर्ष की वर्तमान सीमाओं तक सीमित रह गया है।
कारण तो अनेकों हैं पर व्यावहारिक तौर पर सबसे बड़ा कारण है अंतर्मन के भाव का निश्चल निष्कपट न होना। आप कोई भी कार्य निस्वार्थ करिये बस इसी भाव से कि किसी का भला तो इससे होगा ही। अगले ही क्षण आपके सहयोगी अपने मन के किसी न किसी कोने में भाव उत्पन्न कर लेंगे कि कहीं इसमें इसका कोई स्वार्थ तो नहीं और उस भाव को इतना उद्वेलित कर लेंगे की उनका मन विश्वास कर बैठेगा की हो न हो इस कार्य में अमुक व्यक्ति का कोई न कोई स्वार्थ निहित है।
इससे होगा क्या?! अविश्वास। एक दोष जो आपको उन सब बंधु बांधवों से दूर कर देगा जिनके साथ आप लाभान्वित हैं, प्रसन्न हैं, प्रफुल्लित हैं।
अबन्धुर्बन्धुतामेति नैकट्याभ्यासयोगतः।
यात्यनभ्यासतो दूरात्स्नेहो बन्धुषु तानवम्।।
अर्थ- बार बार मिलने से अपरिचित भी मित्र बन जाते हैं। दूरी के कारण न मिल पाने से बन्धुओं में स्नेह कम हो जाता है।
और जब स्नेह ही नहीं तो आपका चिंतन, दर्शन विस्तृत न होकर संकुचित तो होगा ही।
